ओशो साहित्य >> सम्भावनाओं की आहट सम्भावनाओं की आहटओशो
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प्रस्तुत है ओशो के द्वारा लिखी हुई सम्भावनाओं की आहट .....
Sambhavnaon ki Aaht-
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘यहां मेरे संन्यासी इसी काम में लगे हैं। उन्होंने चखा है, वे तुम्हें भी चखने का आमंत्रण दे रहे हैं। उनके निमंत्रण को स्वीकार करो। पीओ ! पिलाओ ! जीओ और इस मुरदा हो गये देह को जिलाओ।
यह कोई मंदिर नहीं है। यह कोई मस्जिद नहीं है।
यह तो मैकदा है।’’
यह कोई मंदिर नहीं है। यह कोई मस्जिद नहीं है।
यह तो मैकदा है।’’
ओशो
भगवान श्री रजनीश अब केवल ओशो नाम से जाने जाते हैं। ओशो के अनुसार उनका नाम विलियम जेम्स के शब्द ‘ओशनिक’ से लिया गया है, जिसका अभिप्राय है सागर में विलीन हो जाना। ‘ओशनिक’ से अनुभूति की व्याख्या तो होती है, लेकिन वे कहते हैं कि अनुभोक्ता के सम्बन्ध में क्या? उसके लिए हम ‘ओशो’ शब्द का प्रयोग करते हैं। बाद में उन्हें पता चला कि ऐतिहासिक रूप से सुदुर पूर्व में भी ‘ओशो’ शब्द प्रयुक्त होता रहा है, जिसका अभिप्राय हैः भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति, जिस पर आकाश फूलों की वर्षा करता है।
ओशो परम कल्याणमित्र हैं, अस्तित्व का माधुर्य हैं।
उनकी करुणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई है।
ओशो जिनका न कभी जन्म हुआ, न कभी मृत्यु जो इस पृथ्वी ग्रह पर 11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक केवल एक आगंतुक रहे।
प्रस्तुत प्रवचन सम्मुख-उपस्थित श्रोताओं के प्रति ओशो के सहज प्रतिसंवेदन हैं, जिनका मूल्य शाश्वत व संबंध मानव-मानव से है।
ओशो परम कल्याणमित्र हैं, अस्तित्व का माधुर्य हैं।
उनकी करुणा का सहारा पाकर मानवता धन्य हुई है।
ओशो जिनका न कभी जन्म हुआ, न कभी मृत्यु जो इस पृथ्वी ग्रह पर 11 दिसम्बर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक केवल एक आगंतुक रहे।
प्रस्तुत प्रवचन सम्मुख-उपस्थित श्रोताओं के प्रति ओशो के सहज प्रतिसंवेदन हैं, जिनका मूल्य शाश्वत व संबंध मानव-मानव से है।
विरामहीन अंतर्यात्रा
मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा राजमहल था। आधी रात उस राजमहल में आग लग गयी। आंख वाले लोग बाहर निकल गये। एक अँधा आदमी राजमहल में था। वह द्वार टटोलकर बाहर निकलने का मार्ग खोजने लगा। लेकिन सभी द्वार बंद थे, सिर्फ एक द्वार खुला था। बंद द्वारों के पास उसने हाथ फैलाकर खोजबीन की और वह आगे बढ़ गया। हर बंद द्वार पर उसने श्रम किया, लेकिन द्वार बंद थे। आग बढ़ती चली गयी और जीवन संकट में पड़ता चला गया। अंतत: वह उस द्वार के निकट पहुंचा, जो खुला था। लेकिन दुर्भाग्य कि उस द्वार पर उसके सिर पर खुजली आ गयी ! वह खुजलाने लगा और उस समय द्वार से आगे निकल गया और फिर वह बंद द्वारों पर भटकने लगा !
अगर आप देख रहे हों उस आदमी को तो मन में क्या होगा ? कैसा अभागा था कि बंद द्वार पर श्रम किया और खुले द्वार पर भूल की-जहाँ से कि बिना श्रम के ही बाहर निकला जा सकता था ?
लेकिन यह किसी राजमहल में ही घटी घटना-मात्र नहीं है। जीवन के महल में भी रोज ऐसी घटना घटती है। पूरे जीवन के महल में अंधकार है, आग है। एक ही द्वार खुला है और सब द्वार बन्द हैं। बंद द्वार के पास हम सब इतना श्रम करते हैं, जिसका कोई अनुमान नहीं ! खुले द्वार के पास छोटी-सी भूल होते ही चूक जाते हैं ! ऐसा जन्म-जन्मांतरों से चल रहा है ! धन और यश द्वार हैं- वे बंद द्वार हैं, वे जीवन के बाहर नहीं ले जाते।
एक ही द्वार है जीवन के आगे लगे भवन में बाहर निकलने का और उस द्वार का नाम ‘ध्यान’ है। वह अकेला खुला द्वार है, जो जीवन की आग से बाहर ले जा सकता है।
लेकिन वह सिर पर खुजली उठ आती है, पैर में कीड़ा काट लेता है और कुछ हो जाता है और आदमी चूक जाता है ! फिर बंद द्वार हैं और अनंत भटकन है।
इस कहानी से अपनी बात मैं इसलिए शुरू करना चाहता हूं, क्योंकि उस खुले द्वार के पास कोई छोटी-सी चीज को चूक न जायें। और यह भी ध्यान रखें कि ध्यान के अतिरिक्त न कोई खुला द्वार कभी था और न है, न होगा। जो भी जीवन की आग के बाहर हैं, वे उसी द्वार से गये हैं। और जो भी कभी जीवन की आग के बाहर जायेगा, वह उसी द्वार से ही जा सकता है।
शेष सब द्वार दिखायी पड़ते हैं कि द्वार हैं, लेकिन वे बंद हैं। धन भी मालूम पड़ता है कि जीवन की आग के बाहर ले जायेगा, अन्यथा कोई पागल तो नहीं है कि धन को इकट्ठा करता रहे-लगता है कि द्वार है, दिखता भी है कि द्वार है ! द्वार नहीं है। दीवार भी दिखती तो अच्छा था, क्योंकि दीवार से हम सिर फोड़ने की कोशिश नहीं करते। लेकिन बंद द्वार पर तो अधिक लोग श्रम करते हैं कि शायद खुल जाये ! लेकिन धन से द्वार आज तक नहीं खुला है, कितना ही श्रम करें। वह द्वार बाहर ले जाता है और भीतर नहीं ले आता है।
ऐसे ही बड़े द्वार हैं-यश के, कीर्ति के, अहंकार के, पद के, प्रतिष्ठा के, वे कोई भी द्वार बाहर ले जाने वाले नहीं हैं। लेकिन जब हम उन बंद द्वारों पर खड़े हैं, उन्हें देखकर, पीछे जो उन द्वारों पर नहीं हैं, उन्हें लगता है कि शायद अब भी निकल जायेंगे ! जिसके पास बहुत धन है, निर्धन को देखकर लगता है। कि शायद धनी अब निकल जायेगा जीवन की पीड़ा से, जीवन के दु:ख से, जीवन की आग से, जीवन के अंधकार से। जो खड़े है बंद द्वार पर, वे ऐसा भाव करते हैं कि जैसे निकलने के करीब पहुंच गये। एक और छोटी-सी कहानी से उनकी बात समझ लेनी जरूरी है।
एक अस्पताल है। उस अस्पताल में, जो ऐसे रोगी हैं, जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है, केवल उनको ही भर्ती किया जाता है। एक ही दरवाजा है, दरवाजे के पास लंबी दालान है। लंबी दालान पर मरीजों की खाटें हैं। नंबर एक खाट का जो मरीज है, वह कभी-कभी सुबह उठकर कहता है, कैसे सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं, पक्षी कैसे गीत गा रहे हैं ! और सारे लंबे वार्ड के मरीजों को कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। वहां कोई द्वार नहीं, कोई खिड़की नहीं। वे मन ही मन जलते हैं कि यह मरीज कब मर जाये कि नंबर एक की जगह हम पहुंच सकें !
फिर उस मरीज को हृदय का दौरा आया है और सारे वार्ड के मरीज भगवान से प्रार्थना करते हैं कि यह मर जाये और उसकी जगह हमें मिल जाये। वहां से सूरज के दर्शन हमें भी हो जायें। फूल भी खिलते हैं, पक्षी गीत भी गाते हैं, चांद भी दीखता है, तारे भी दीखते हैं। धन्य है वह, उस द्वार पर सब दिखायी देता है। लेकिन वह आदमी बच जाता है और फिर सुबह उठकर कहने लगता है-कितनी सुगंध आती है, कैसी सूरज की किरणें हैं, कैसा आनन्द है इस द्वार पर !
फिर दोबारा दौरा आता है उस आदमी को। फिर वे सब प्रार्थना करते हैं कि मर जाये ! बार-बार यह होता है, लेकिन वह मरीज मरता नहीं है ! और बार-बार वह मरीज जब ठीक हो जाता है तो द्वार के बाहर झांककर द्वार के सौंदर्य की बातें करता है। सारे वार्ड के मरीज प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, जलन से भरे हैं। अंतत: वह मरीज मर जाता है। सारे मरीज कोशिश करते हैं कि हमें पहली जगह मिल जाये। रिश्वत देते हैं, सेवा करते हैं डाक्टरों की।
किसी तरह कोई एक मरीज सफल हो जाता है और पहली खाट पर पहुँच जाता है। झांककर बाहर देखता है, वहां भी दीवार है, द्वार के बाहर परकोटे की दीवार है ! न वहाँ सूरज दिखायी पड़ता है, न वहां कोई फूल खिलते हैं, न वहां कभी चांद आता है, न वहां कभी किरणें आती हैं ! धक से रह जाती है तबियत। लेकिन अब अगर यह कहे कि नहीं कुछ है तो सारे वार्ड के मरीज कहेंगे, मूर्ख बन गया। सो वह देखता है दीवार को और लौटकर मुस्कुराता है और कहता है, धन्य मेरे भाग्य, कैसा सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं ! और सारे फिर वार्ड के मरीज उसी चक्कर में परेशान हैं कि कब यह मर जायेगा तो हमें वह जगह मिल जायेगी !
वे जो राष्ट्रपति की जगह खड़े हैं, ऐसे ही बन्द दरवाजे पर खड़े हैं कि जहाँ आगे न कोई सूरज है, न कोई रोशनी है, न कोई फूल है। वे जो धन के दरवाजे पर खड़े हैं, ऐसे ही बंद दरवाजे पर खड़े हैं, जहां दीवार है ! लेकिन पीछे लौटकर वे कहेंगे, बहुत फूल खिले हैं, सूरज दिख रहा है, चांद दिख रहा है, पक्षी गीत गा रहे हैं ! अगर वे यह न कहें तो मूर्ख समझे जायेंगे।
लेकिन कभी-कभी उन द्वारों से भी कुछ लोग लौट पड़ते हैं हिम्मतवर, साहसी और कह देते हैं, नहीं है कुछ। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध लौट आता है उस द्वार से और कहता है, वहां कुछ भी नहीं है।
लेकिन अधिकतर लोग तो अपनी भूल को स्वीकार करने को राजी नहीं होते और उनका यह दंभ हजारों लोगों को पागल बना देता है कि कब हम वहां पहुंच जायें। लेकिन सब द्वार बंद हैं। एक द्वार खुला है, वह ध्यान का द्वार है। और मजे की बात है कि वे सब द्वार बंद हैं, जो बाहर की तरफ खुलते मालूम पड़ते हैं। वह द्वार खुला है, जो भीतर की तरफ खुलता मालूम पड़ता है।
ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है, धन का द्वार बाहर की तरफ खुलता है।
बाहर की तरफ खुलनेवाले सब द्वार धोखे के सिद्ध हुए हैं। कोई द्वार बाहर की तरफ नहीं खुलता है, खुल सकता ही नहीं है, बंद ही है। असल में बाहर की तरफ दीवार है, वहां कुछ है ही नहीं खोलने को। खुलता है वह द्वार, तो भीतर की तरफ खुलता है। लेकिन उस द्वार के पास जब से हम निकल जाते हैं और सब छूट जाता है।
भीतरी यात्रा में कठिनाई पैदा हो जाती है, क्योंकि हमें बाहर जाने की जन्म-जन्मांतरों से आदत है। उस रास्ते से हम भली-भांति परिचित हैं; वह पहचाना, जाना-माना है, वहाँ कोई भूल चूक का डर नहीं है। यह यात्रा बिलकुल अपरिचित है, यह जो भीतर की तरफ जाते हैं। और ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है। उस द्वार पर स्वामी राम मजाक में कहते थे-उस द्वार पर लिखा है खींचो भीतर की तरफ, मत धकाओ बाहर की तरफ। बाहर की तरफ धकाने से वह और बंद होता है।
अगर आप देख रहे हों उस आदमी को तो मन में क्या होगा ? कैसा अभागा था कि बंद द्वार पर श्रम किया और खुले द्वार पर भूल की-जहाँ से कि बिना श्रम के ही बाहर निकला जा सकता था ?
लेकिन यह किसी राजमहल में ही घटी घटना-मात्र नहीं है। जीवन के महल में भी रोज ऐसी घटना घटती है। पूरे जीवन के महल में अंधकार है, आग है। एक ही द्वार खुला है और सब द्वार बन्द हैं। बंद द्वार के पास हम सब इतना श्रम करते हैं, जिसका कोई अनुमान नहीं ! खुले द्वार के पास छोटी-सी भूल होते ही चूक जाते हैं ! ऐसा जन्म-जन्मांतरों से चल रहा है ! धन और यश द्वार हैं- वे बंद द्वार हैं, वे जीवन के बाहर नहीं ले जाते।
एक ही द्वार है जीवन के आगे लगे भवन में बाहर निकलने का और उस द्वार का नाम ‘ध्यान’ है। वह अकेला खुला द्वार है, जो जीवन की आग से बाहर ले जा सकता है।
लेकिन वह सिर पर खुजली उठ आती है, पैर में कीड़ा काट लेता है और कुछ हो जाता है और आदमी चूक जाता है ! फिर बंद द्वार हैं और अनंत भटकन है।
इस कहानी से अपनी बात मैं इसलिए शुरू करना चाहता हूं, क्योंकि उस खुले द्वार के पास कोई छोटी-सी चीज को चूक न जायें। और यह भी ध्यान रखें कि ध्यान के अतिरिक्त न कोई खुला द्वार कभी था और न है, न होगा। जो भी जीवन की आग के बाहर हैं, वे उसी द्वार से गये हैं। और जो भी कभी जीवन की आग के बाहर जायेगा, वह उसी द्वार से ही जा सकता है।
शेष सब द्वार दिखायी पड़ते हैं कि द्वार हैं, लेकिन वे बंद हैं। धन भी मालूम पड़ता है कि जीवन की आग के बाहर ले जायेगा, अन्यथा कोई पागल तो नहीं है कि धन को इकट्ठा करता रहे-लगता है कि द्वार है, दिखता भी है कि द्वार है ! द्वार नहीं है। दीवार भी दिखती तो अच्छा था, क्योंकि दीवार से हम सिर फोड़ने की कोशिश नहीं करते। लेकिन बंद द्वार पर तो अधिक लोग श्रम करते हैं कि शायद खुल जाये ! लेकिन धन से द्वार आज तक नहीं खुला है, कितना ही श्रम करें। वह द्वार बाहर ले जाता है और भीतर नहीं ले आता है।
ऐसे ही बड़े द्वार हैं-यश के, कीर्ति के, अहंकार के, पद के, प्रतिष्ठा के, वे कोई भी द्वार बाहर ले जाने वाले नहीं हैं। लेकिन जब हम उन बंद द्वारों पर खड़े हैं, उन्हें देखकर, पीछे जो उन द्वारों पर नहीं हैं, उन्हें लगता है कि शायद अब भी निकल जायेंगे ! जिसके पास बहुत धन है, निर्धन को देखकर लगता है। कि शायद धनी अब निकल जायेगा जीवन की पीड़ा से, जीवन के दु:ख से, जीवन की आग से, जीवन के अंधकार से। जो खड़े है बंद द्वार पर, वे ऐसा भाव करते हैं कि जैसे निकलने के करीब पहुंच गये। एक और छोटी-सी कहानी से उनकी बात समझ लेनी जरूरी है।
एक अस्पताल है। उस अस्पताल में, जो ऐसे रोगी हैं, जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है, केवल उनको ही भर्ती किया जाता है। एक ही दरवाजा है, दरवाजे के पास लंबी दालान है। लंबी दालान पर मरीजों की खाटें हैं। नंबर एक खाट का जो मरीज है, वह कभी-कभी सुबह उठकर कहता है, कैसे सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं, पक्षी कैसे गीत गा रहे हैं ! और सारे लंबे वार्ड के मरीजों को कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता। वहां कोई द्वार नहीं, कोई खिड़की नहीं। वे मन ही मन जलते हैं कि यह मरीज कब मर जाये कि नंबर एक की जगह हम पहुंच सकें !
फिर उस मरीज को हृदय का दौरा आया है और सारे वार्ड के मरीज भगवान से प्रार्थना करते हैं कि यह मर जाये और उसकी जगह हमें मिल जाये। वहां से सूरज के दर्शन हमें भी हो जायें। फूल भी खिलते हैं, पक्षी गीत भी गाते हैं, चांद भी दीखता है, तारे भी दीखते हैं। धन्य है वह, उस द्वार पर सब दिखायी देता है। लेकिन वह आदमी बच जाता है और फिर सुबह उठकर कहने लगता है-कितनी सुगंध आती है, कैसी सूरज की किरणें हैं, कैसा आनन्द है इस द्वार पर !
फिर दोबारा दौरा आता है उस आदमी को। फिर वे सब प्रार्थना करते हैं कि मर जाये ! बार-बार यह होता है, लेकिन वह मरीज मरता नहीं है ! और बार-बार वह मरीज जब ठीक हो जाता है तो द्वार के बाहर झांककर द्वार के सौंदर्य की बातें करता है। सारे वार्ड के मरीज प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, जलन से भरे हैं। अंतत: वह मरीज मर जाता है। सारे मरीज कोशिश करते हैं कि हमें पहली जगह मिल जाये। रिश्वत देते हैं, सेवा करते हैं डाक्टरों की।
किसी तरह कोई एक मरीज सफल हो जाता है और पहली खाट पर पहुँच जाता है। झांककर बाहर देखता है, वहां भी दीवार है, द्वार के बाहर परकोटे की दीवार है ! न वहाँ सूरज दिखायी पड़ता है, न वहां कोई फूल खिलते हैं, न वहां कभी चांद आता है, न वहां कभी किरणें आती हैं ! धक से रह जाती है तबियत। लेकिन अब अगर यह कहे कि नहीं कुछ है तो सारे वार्ड के मरीज कहेंगे, मूर्ख बन गया। सो वह देखता है दीवार को और लौटकर मुस्कुराता है और कहता है, धन्य मेरे भाग्य, कैसा सूरज निकला है, कैसे फूल खिले हैं ! और सारे फिर वार्ड के मरीज उसी चक्कर में परेशान हैं कि कब यह मर जायेगा तो हमें वह जगह मिल जायेगी !
वे जो राष्ट्रपति की जगह खड़े हैं, ऐसे ही बन्द दरवाजे पर खड़े हैं कि जहाँ आगे न कोई सूरज है, न कोई रोशनी है, न कोई फूल है। वे जो धन के दरवाजे पर खड़े हैं, ऐसे ही बंद दरवाजे पर खड़े हैं, जहां दीवार है ! लेकिन पीछे लौटकर वे कहेंगे, बहुत फूल खिले हैं, सूरज दिख रहा है, चांद दिख रहा है, पक्षी गीत गा रहे हैं ! अगर वे यह न कहें तो मूर्ख समझे जायेंगे।
लेकिन कभी-कभी उन द्वारों से भी कुछ लोग लौट पड़ते हैं हिम्मतवर, साहसी और कह देते हैं, नहीं है कुछ। कभी कोई महावीर, कभी कोई बुद्ध लौट आता है उस द्वार से और कहता है, वहां कुछ भी नहीं है।
लेकिन अधिकतर लोग तो अपनी भूल को स्वीकार करने को राजी नहीं होते और उनका यह दंभ हजारों लोगों को पागल बना देता है कि कब हम वहां पहुंच जायें। लेकिन सब द्वार बंद हैं। एक द्वार खुला है, वह ध्यान का द्वार है। और मजे की बात है कि वे सब द्वार बंद हैं, जो बाहर की तरफ खुलते मालूम पड़ते हैं। वह द्वार खुला है, जो भीतर की तरफ खुलता मालूम पड़ता है।
ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है, धन का द्वार बाहर की तरफ खुलता है।
बाहर की तरफ खुलनेवाले सब द्वार धोखे के सिद्ध हुए हैं। कोई द्वार बाहर की तरफ नहीं खुलता है, खुल सकता ही नहीं है, बंद ही है। असल में बाहर की तरफ दीवार है, वहां कुछ है ही नहीं खोलने को। खुलता है वह द्वार, तो भीतर की तरफ खुलता है। लेकिन उस द्वार के पास जब से हम निकल जाते हैं और सब छूट जाता है।
भीतरी यात्रा में कठिनाई पैदा हो जाती है, क्योंकि हमें बाहर जाने की जन्म-जन्मांतरों से आदत है। उस रास्ते से हम भली-भांति परिचित हैं; वह पहचाना, जाना-माना है, वहाँ कोई भूल चूक का डर नहीं है। यह यात्रा बिलकुल अपरिचित है, यह जो भीतर की तरफ जाते हैं। और ध्यान का द्वार भीतर की तरफ खुलता है। उस द्वार पर स्वामी राम मजाक में कहते थे-उस द्वार पर लिखा है खींचो भीतर की तरफ, मत धकाओ बाहर की तरफ। बाहर की तरफ धकाने से वह और बंद होता है।
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